निर्देशक व लेखक अशोक त्यागी: मेरा दावा है कि 'फायर ऑफ लवः रेड' के बाद कृष्णा अभिषेक भी बहुत बड़ा स्टार बन जाएगा

| 09-09-2023 4:40 PM 30

1985 में फिल्म ''सूर्खियां'' का निर्देशन कर अशोक त्यागी सूर्खियों में छा गए थे. फिल्म को जबरदस्त सफलता मिली थी. इसके बाद उन्होने 'अंधेर गर्दी','रिटर्न ऑफ ज्वेल थीफ','भारत भाग्य विधाता', 'इट्स रोक्किंग-दर्द ए डिस्को', 'रियासत','लाइफ ए सेकेंड चांस'जैसी सफलतम फिल्मों का निर्देशन कर बॉलीवुड में अपनी एक अलग पहचान बनायी. इसके बाद वह मुंबई छोड़कर दिल्ली चले गए थे. वहां पर वह 'मारवाह स्टूडियो' से जुड़ गए और फिल्म इंस्टीट्यूट को बढ़ाया. फिर अशोक त्यागी ने 'व्हाय आई किल्ड गांधी' जैसी फिल्म बनायी. इन दिनों वह फिल्म 'फायर ऑफ लव:रेड' को लेकर चर्चा में हैं. अशोक त्यागी के लेखन व निर्देशन में बनी फिल्म ''फायर ऑफ लवः रेड'' में कृष्णा अभिषेक, पायल घोष, अरूण बक्शी, भरत दाभोलकर, कमलेश सावंत जैसे कलाकार हैं.

पेश है अशोक त्यागी से हुई बातचीत के अंश..

 

आपने 1985 में फिल्म ''सूर्खियां'' का निर्देशन कर अपने फिल्मी कैरियर की शुरूआत की थी. अब 2023 में आपकी फिल्म ''फायर ऑफ लवः रेड'' आ रही है. आप अपने इतने लंबे कैरियर को किस तरह से देखते हैं?

दादा साहेब फालके ने पहली फिल्म 1913 में बनायी थी. 1943 में उनका कैरियर खत्म हो चुका था. मतलब उनका कैरियर सिर्फ 30 वर्ष रहा. मनमोहन देसाई का कैरियर 1961 में शुरू हुआ था, और उनकी अंतिम फिल्म ''गंगा जमुना सरस्वती'' 1987 में प्रदर्शित हुई थी. प्रकाश मेहरा ने अपनी पहली फिल्म 'हसीना मान जाएगी'1968 में बनायी. अंतिम फिल्म 'शराबी'1984 में बनायी. उनके द्वारा निर्देशित कुछ फिल्में बाद में बनायी गयी. यॅूं तो प्रकाश मेहरा निर्देशित फिल्म ''बाल ब्रम्हचारी''1996 में प्रदर्शित हुई थी, जिसे खास सफलता नहीं मिली थी. अब मेरी बात लें. मेरी पहली फिल्म 'सूर्खियां' 1985 में आयी. और अब मेरी अगली फिल्म 'रेड' 2023 में रिलीज होने वाली है. इस बीच मैने अंधेरगर्दी','रिटर्न ऑफ ज्वेलथीफ','भारत भाग्य विधाता','इट्स रोक्किंग दर्द ए डिस्को', 'रियासत', 'लाइफ ए सेकंड चांस','व्हाई आई किल्ड गांधी' जैसी फिल्में निर्देशित की. और अब 'फायर ऑफ लवः रेड' का निर्देशन किया है. 1986 में फिल्म इंडस्ट्री में स्टाइक हुई थी. जिसमें दिलीप कुमार,देव आनंद, राजकपूर सहित सारे दिग्गजों ने हिस्सा लिया था. उसकी ऐतिहासिक फुटेज है, उसको लेकर मैंने ''मोर्चा'' नाम से फिल्म बनायी, जिसे सेंसर भी करवाया. भगवान रजनीश पर एक फिल्म ''मेरा सपना, मेरा भारत' बनायी. इन दोनों को भी मेरी फिल्मों में गिना जाना चाहिए. इस तरह 1985 से लेकर अब तक मैं सक्रिय हूं. ईश्वर की अनुकंपा और दर्शकों के प्यार के चलते मुझे लग रहा है कि फिल्म 'फायर आफ लव रेड' से मेरे कैरियर की नई शुरूआत हो रही है. जिस तरह से प्लेन टेक आफ लेने से पहले कुछ दूर तक रनवे पर चलता/दौड़ता है,वैसा ही मुझे अपने बारे में लग रहा है. गुणवत्ता के स्तर पर काफी बदलाव आया है.

 

देखिए, पानी जब तक 93 डिग्री तक उबलता रहता है,तब तक वह पानी ही रहता है. मगर 100 डिग्री पर जब पानी उबलता है,तब वह पानी नहीं रह जाता,बल्कि भाप बन जाता है. उसी तरीके से अब मैं भी भाप बन चुका हूं. उसकी वजह अब मैं दर्शकों के साथ नए अंदाज में जुड़ना चाहता हॅूं. दर्शकों के साथ जुड़ाव कायम करना चाहता हॅूं. मैं अहसास कर रहा हॅूं कि आज की तारीख में जो लोग फिल्में बना रहे हैं, वह सभी अपने सपनों की दुनिया में लीन हैं और अपने उन सपनों को पूरा करने के लिए वह फिल्में बना रहे हैं. जब बिमल राय,गुरूदत्त, राज कपूर, व्ही शांताराम,राज खोसला, सुबोध मुखर्जी आदि फिल्मकार फिल्में बनाते समय दर्शकों के बारे में सोचते थे कि मैं जो फिल्म बना रहा हूं,वह दर्शकों का मनोरंजन करेगी या नहीं  और फिल्मकार के तौर पर क्या मैं अपने दर्शकों के साथ संवाद स्थापित कर पाऊंगा या नहीं. वर्तमान समय का कोई भी फिल्मकार दर्शकों के साथ संवाद स्थापित नही कर पा रहा है. वह ऐसा करने के बारे में सोचता ही नहीं है. फिल्मकारों के अंदर ही उत्सुकता खत्म हो चुकी है,जिसका परिणाम हम सभी देख ही रहे हैं. यह सबसे बड़ी समस्या है.

मैने 1985 में सुर्खियाँ बनायी थी. यह फिल्म दर्शकों व समीक्षकों दोनों को अच्छी लगी थी. 'सूर्खियं' ने जो आपेक्षाएं खड़ी कीं, इमानदारी से कहॅूं तो मुझे भी नही पता कि क्या कारण रहे, मगर मैं उन्हें पूरी नही कर पाया. 'सुर्खियाँ' में ताजगी थी. व्यावसायिकता भी थी. 'सूर्खियां' में कलात्मकता और व्यावसायिकता का बेहतर समन्वय था. पर मैं उसके बाद मैं व्यावसायिकता की तरफ ज्यादा मुड़ गया. शायद इसकी वजह यह रही कि मुझ पर जिस तरह से दबाव बढ़ता गया, मैं व्यावसायिक होता चला गया. पर उस वक्त मेरे सिर पर कोई बैठा हुआ नहीं था. मुझे हमेशा स्वतंत्रता मिली. 'रिटर्न आफ ज्वेल थीफ' व्यावसायिक होते हुए भी अवसरवादी फिल्म नही थी.

 

आपकी नई फिल्म 'फायर ऑफ लव: रेड 'चर्चा में हैं. मगर इसका निर्देशन काफी लंबे अंतराल के बाद किया है?
मुझे नहीं लगता कि लंबा अंतराल हो गया. अभी पिछले वर्ष ही मेरे निर्देशन में बनी फिल्म 'व्हाय आई किल्ड गांधी' आयी थी. मैं मानता हॅूं कि 2014 में मेरी फिल्म 'रियासत' सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी. 2012 में 'इट्स रोक्किंगः दर्द ए डिस्को' प्रदर्शित हुई थी. पर मेरी फिल्म 'व्हाय आई किल्ड गांधी' जनवरी 2022 में रिलीज हुई थी. इस हिसाब से देखें तो 'रियासत' और 'व्हाय आई किल्ड गांधी' के बीच आठ साल का गैप रहा. वैसे 'व्हाय आई किल्ड गांधी' की शूटिंग 2017 में हो गयी थी. लेकिन इस फिल्म के प्रदर्शन के लिए मुझे सही माहौल की प्रतीक्षा थी. आप समझ सकते है कि शायद किसी अन्य काल खंड में फिल्म 'व्हाय आई किल्ड गांधी' सिनेमाघरों तक पहुंच ही न पाती.

फिल्म 'फायर आफ लवः रेड' की योजना कैसे बनी थी?

फिल्म के एक निर्माता राजीव चैधरी से मेरा पुराना परिचय है. जब मैने फिल्म 'सुर्खियाँ' बनायी थी, तब वह पत्रकार थे और रामराज नाहटा की ट्रेड पत्रिका फिल्म इंफार्मेशन में काम किया करते थे. इत्तफाक से लॉक डाउन के ही दिनों में एक दिन उन्ही राजीव चैधरी जी का मेरे पास फोन आया. वह एक अच्छी कहानी की तलाश में थे. मेरे पास 'फायर आफ लव: रेड' की पटकथा तैयार थी. मैने उन्हे यह पटकथा और अपनी फिल्म 'व्हाय आई किल्ड गांधी' का वीडियो भेज दिया. उनको मेरी फिल्म व स्क्रिप्ट पसंद आयी. तो उन्होने इस पर फिल्म बनाने की ठान ली. उनके मित्र हैं सुरेंद्र जगताप जो कि मराठी फिल्मों के अच्छे निर्माता हैं. सुरेन्द्र जगताप चाहते थे कि राजीव चैधरी जी उनके लिए मराठी फिल्म निर्देशित करें मेरी पटकथा पसंद आने पर राजीव चैधरी ने सोचा कि मराठी की बजाय हिंदी फिल्म बनायी जाए,तो उन्होने सुरेन्द्र जगताप से बात की और वह तैयार हो गएं. आधी फिल्म बनने के बाद  जगन्नाथ वाघमारे जी भी जुड़ गए. खैर, अब फिल्म पूरी हो गयी है. सेंसर भी हो गयी है. अब मुझे फिल्म के रिलीज होने का उतावलापन है.

 

इसकी कहानी का प्रेरणास्रोत क्या रहा?

मेरे पास कई कहानियों की पटकथा तैयार है. उन्हीं में एक पटकथा इस फिल्म की भी तैयार थी. यह एक रोमांचक फिल्म है. हम कोविड के चलते लॉक डाउन में कम से कम कलाकारों के साथ एक बेहतरीन फिल्म बनाना चाहते थे, जो कि लॉक डाउन के बाद की परिस्थितयों का भी सामना कर सके. उन दिनों शूटिंग के वक्त सोशल डिस्टेंस का ख्याल रखना पड़ता था. कई बार कुछ लोग आकर हमारी शूटिंग भी रूकवा देते थे. यह सब चल रहा था. 'फायर आफ लवः रेड' एक रोमांचक फिल्म है. सिनेमा के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती है कि कैमरा तो किरदार/ कलाकार के शरीर को देखता है, जबकि वह किरदार तो उस शरीर के पीछे छिपा होता है. वहां पर आप कैमरा नही ले जा सकते. मगर उपन्यासकार व कवि, किरदार की मानसिक दशा का भी सटीक चित्रण करता है. मगर सिनेमा के अंदर हमारे पास किरदार की मानसिक दशा को चित्रित करने का कोई तरीका ही नही है. हम सिर्फ किरदार के एक्शन को चित्रित कर सकते हैं. सिनेमा की यह बहुत बड़ी सीमा है. कला की यह सबसे बड़ी सीमा है कि सब्जेक्टीविटी के बारे मेंमाॅडर्न आर्ट या पेंटर किरदार की मानसिक दशा को रेखंाकित करता है. कवि अपनी मानसिक दशा को माॅडर्न कविता के माध्यम से पेश कर लेता है. लेकिन सिनेमा में ऐसा कोई साधन नही है,जिससे फिल्म का निर्देशक अपनी या फिल्म के किरदार की मानसिक दशा को परदे पर दिखा सकें. फिल्म'फायर आफ लव रेड' के माध्यम से मैंने वह प्रयास किया है. मैं यह दावा नहीं करता ऐसा पूरे विश्व में ऐसा मैने पहली बार किया है. मुझसे पहले शायद अल्फे्रड हिचकाॅक ने अपनी फिल्मों में किया था. मसलन- फिल्म 'सायको' में जो हत्यारा है, उसकी मानसिक दशा को परदे पर उकेरा गया है. इसके अलावा फिल्म 'एट एंड हाफ' में इटालियन निर्देशक फेडरिको फेलिनी ने केंद्रीय किरदार की जगह खुद को ही रखा हुआ है. तो यह पूरी तरह से सब्जेक्टिब है. कुछ दूसरे निर्देशकों ने भी प्रयास किए होंगे.लेकिन हिंदी सिनेमा में मेरी समझ से मैने ही 'फायर आफ लवः रेड' में पहला प्रयास किया है.मैं अपने इस प्रयास को बहुत सफल प्रयास मानता हॅूं. मैने अपनी फिल्म को महज मनोरंजन के लिए ही राहुल रवैल,पंकज पराशर सहित कुछ लोकप्रिय निर्देशकों को दिखायी है. मैने सभी से कहा कि आप सिर्फ मनोरंजन के लिए आकर यह फिल्म देखिए. अगर फिल्म देखने के बाद आपका मनोरंजन नही हुआ,तो जूते मारकर जाना. मैं सूरज बड़जात्या को भी दिखाने वाला हॅूं. सूरज बड़जात्या से मुलाकात होने पर मैने कहा कि हमारी फिल्म उनकी फिल्मों के विपरीत है. हमारी फिल्म लक्ष्मण रेखा पार करने की बात करती है. हमारे जो नैतिक मूल्य हैं,या यॅूं कहें कि नैतिक मूल्यों का आडंबर हमने ओढ़ रखा है, उस पर हमारी फिल्म ''फायर ऑफ लवःरेड' बहुत बुरी तरह से कुठाराघाट करती है. लेकिन यह हमला रोचक,मनोरंजक व संगीतमय है कि हर इंसान इंज्वाॅय करेगा. हो सकता है कि फिल्म 'फायर आफ लव: रेड' देखने के बाद दर्शक कुछ समय के लिए अव्यवस्थित हो जाए. पर फिल्म का संगीत आपको दीवाना बना देता है. हमारी फिल्म अल्फ्रेंड हिचकाॅक की फिल्मों जैसा रोमांचक अनुभव देने वाली है.

 

तो आपको लग रहा है कि आपकी फिल्म ''फायर ऑफ लव रेड'' सफलता के झंडे गाड़ेगी?

जरुर. मैने 'फ्लाप प्रुफ' फिल्म बनायी है. मैने इसका एक फार्मूला भी बनाया है. इसके अनुसार फिल्म के निर्माण के खर्च पर अंकुश लगाया जाए. तथा फिल्म की कमायी  फिल्म की लागत से अधिक हो, इस तरह से फिल्म बननी चाहिए. यदि ऐसा है तो फिल्म सफल है. अगर आपकी फिल्म की लागत दो सौ करोड़ है और आपकी फिल्म महज 180 करोड़ की कमायी करती है तो आप किस मुह से फिल्म की सफलता का डमरू बजाते हैं? तो आप दुनिया को मूर्ख बनाते हैं,क्योंकि आपको हकीकत में नुकसान हुआ है. फिल्म की लागत व कमायी का जो मानदंड होना चाहिए, उस पर हम ध्यान नहीं दे रहे हैं, जो कि गलत है. मैने इसी मानदंड के अनुसार एक फार्मूला निकाला है,इस फार्मूले पर यदि फिल्म इंडस्ट्री चलेगी,तो फिल्म इंडस्ट्री में असफल फिल्में नही बनेगी. मैं चाहता हॅूं कि मेरी फिल्म के प्रदर्शन के बाद फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग मेरे साथ चर्चा करें.

आपने अतीत में कई दिग्गज कलाकारों के साथ फिल्में बनायी हैं.तो फिर फिल्म 'फायर आफ लव: रेड' को कृष्णा अभिषेक व पायल घोष के साथ बनाने की कोई खास वजह?

मैं फिल्म उद्योग को दिखाना चाहता हूं कि अगर एक निर्देशक चाहे तो बिना किसी तथाकथित बड़े कलाकार को फिल्म में लिए भी सफल फिल्म बना सकता है. मेरा दावा है कि इस फिल्म के बाद कृष्णा अभिषेक भी बहुत बड़ा स्टार बन जाएगा. लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि हर बड़ा कलाकार भी कभी नवोदित कलाकार ही था. मेरे मन में सभी के प्रति सम्मान है. मैं किसी के भी प्रति अपमान की भावना नही रखता. लेकिन मैं एक सफल फिल्म बनाकर दिखाना चाहता हूं, जिससे दूसरे निर्देशकों के अंदर भी साहस पैदा हो. मैं दिखाना चाहता हॅूं कि बिना तथाकथित बड़े कलाकार के भी एक निर्देशक सफल फिल्म बना सकता है. मुझसे पहले महेश भट्ट ने 'राज' सहित कई सफल फिल्में नए कलाकारों को लेकर बनायी हैं. महेश भट्ट की फिल्मों का अपना जाॅनर हुआ करता था. विक्रम भट्ट रहस्य व रोमांचक सफल फिल्में बनाते रहे हैं,नए कलाकारों के साथ. मेरा मानना है कि इस तरह की फिल्मों के लिए जगह है. अभी हाल ही में विक्रम भट्ट की बेटी ने भी कम लागत में रहस्य व रोमांच से भरपूर संगीत वाली फिल्म '1920' बनायी, जिसे अच्छी सफलता मिली. मेरी फिल्म का भविष्य उज्ज्वल है. हमारी फिल्म में वह ब्लाइंड वाला गेम है कि डार्क हाॅर्स निकलेगा. हमारी फिल्म सौ करोड़ से अधिक की कमायी करेगी. बशर्ते इसे सही वितरक मिल जाए. मेरी फिल्म का सफल होना तय है.इसका संगीत, इसके संवाद सभी लोकप्रिय हैं. हमारी फिल्म सिल्वर जुबिली हो सकती है. पहलाज निहलानी का निशांत सिनेमाघर है. मेरी योजना है कि निशंात सिनेमाघर मे मैं इसे 25 सप्ताह चलाउंगा. पचास दिन तो रेगुलर में चलाऊंगा, उसके बाद इसे मैटिनी शो में चलाऊंगा.

 

फिल्म के संगीत को लेकर क्या कहेंगे?

इसका संगीत लाजवाब है. रिजु राय ने इसका संगीत दिया है. ए आर रहमान ने 1995 में फिल्म 'रगीला' से जो कम्प्यूटराइज्ड व सेंथेसाइज करके संगीत परोसा, वह अपने स्टूडियो में ख्ुाद ही संगीत बना लेते हैं. फिलहाल हर संगीतकार उसी तरह का काम कर रहा है. हमारी फिल्म में संगीत भारतीय संस्कृति का बहुत ही अमूल्य व अभिन्न अंग है. अगर हमारे देश में सारंगी बजाने वाले, सितार व हरमोनियम बजाने वाले ,तबला व मृदंग बजाने वाले ही नही रहेंगे,तो देश में संगीत कैसे रहेगा. पहले हमारी फिल्मों के गानों में लाइव ओर्केस्ट्रा हुआ करता था. जिसकी वजह से वायलिन बजाने वालों की कद्र हुआ करती थी. हरिप्रसाद चैरसिया ने बांसुरी,तो रवि शंकर ने फिल्मी गानों में सितार बजाया है. मगर अब हीरो को देने के लिए निर्माता के पास डेढ़ सौ करोड़ हैं, मगर म्यूजीशियन को देने के लिए  दो चार हजार रूपए नही होते. इसी को हमने उल्टा किया है संगीत कार रिजू राय के माध्यम से. उसने भी उसी स्कूल से संगीत सीखा,जिससे ए आर रहमान ने संगीत की शिक्षा ली थी. मैने उससे कहा कि मुझे सलिल चैधरी,एस डी बर्मन वाला संगीत देना है. मुझे लाइव इंस्ट्यूमेंट के साथ ही आधुनिकता भी चाहिए. रिजू रॉय ने वैसा संगीत बनाकर दिया. हमारी फिल्म का संगीत ट्रेंड सेटर होने वाला है.

फिल्म में कितने गाने हैं?

कुल तीन गाने हैं. इसमें से एक शीर्ष गीत है. जबकि कहानी में दो गाने हैं.

इसके बाद की क्या योजना है?

एक फिल्म 'एम एम एम' बनाने वाला हॅूं. जिसमें बड़ी स्टार कास्ट होगी. पूरी तरह से मंुबइया फिल्म होगी. जिसे दक्षिण में भी डब किया जाएगा. दक्षिण मे इसका रीमेक भी होगा.